धल्य-धन्य प्रशु रामलाल शंकर अवत्तारी।
दुख भंजन भव तारण निरा कार साकार॥
तुम्ही ब्रह्मा पुम्ही विष्णु तुम्हीं शंकर अचनासी सकल जगत प्रतिपालंक तुम्हो प्रश्न रामलाल हिमवासी तुम्ही रामा तुम्ही दयामा तुम्ही कहाते ब्वासी सारे विक्व में तुम्ही व्यापक घट-घट के प्रशु हो वासी तुम समान नि जग में दाता छानी दुनियाँ सारी
ऋषि मुनि और देवादि नित गान तुम्हारा गाते चरण कमल में ध्यान लगाकर सुध सिगरी बिसरात चन्द्र सूय॑ अरु गथन के तारे ज्योति तुमसे पाते होके प्रभावित रोज से तुम्हरे मस्तक सदा नवाते प्रयास करता हूँ महिमा गाऊँ बुद्धि पर हमारी
हाहाकार मचो क लियुग में मानस नीति बिसारा पाके निराशा चहूँ ओर से शंकर साम उकासे दरस तेरे हम तरस रहे वेरा एक सहारा भवत तेरे हैं अब अकुलाये करो आन निस्तारा सच्चा मार्ग तुरन्त दिखलादो भोलेनाथ दिपधारी
अखिल ब्रह्म नायक ने फौरन छोड़ो के लाश गिरवर तजके अपनी तपोश्चुमि को था पहुंचे अमृतसर रामलाल है नाम धरायों क्हाय्े गन्डाराम पुतर जन्म तिथि लख पंडित कहते अवतार लियो है योगीर्वर अदुमुत आनन्द उर दर्शायों देखी छटा तुम्हारी
करुणा सिन्घु है दीन दयाल् योगीराज जटाधारी
हरने विपता दीन दुःखों की एह मनुज धारी
देख-देख कर रूप सुहाना होते देव सुखारी
गद-गद होकर मन से कहते; बारम्बार पुकारो
पर पीड़ा निज तस भुगताते तुम दीनन हितकारी
मानव लक्ष्य भुलायो जबही भक्त भये दुखियारों
सुनत टेर प्रतु आये तुरन्तहि गावत वेद उचारी
राम रूप धर करके नाथ जाय अहिल्या उबारी
रावण सम राक्षस को मारो देवन पीड़ा निवारों
भॉति-भाँति के कष्ट मिटावत हे लोला धारो
कृष्ण रूप धर गोकुल में मुरली अधर बजाई
मार पूतना कन्स पछारयो दुविधा सबकी मिटाई
व्यावूल दखा द्रोप सुता को दीन्यो चीर बढ़ाई
इन्द्र ने कोप कियो ब्रज ऊपर गिरवर लियो उठाई
हरते मद हैं प्रेम उपजाते हृषित नर-नारी
बात्य अवस्था प्रभु को महिमा चित में लेओ ब्िठाई
हैं ब्रहा' विष्ण दोनों लजाये कहते आपस भाई
मृत्यु लोक में जगत विधाता कृपा रहो बरसाई
जय-जयकार मची चहूँ ओरा चलकर देखें भाई
अधमन पल में देत उद्घारत प्रतु लीला न्यारी
एक वृद्धा सुख होते भी रहती बहू दुःखयारी
दशन करने को प्रभुजी के इच्छा रही भारी
भान हुआ उसे एक रात आओ दुः:खिया महतारी
गत्डाराम घर जन्म लिया हूँ फिरती क्यों मारी
होत भोर वह आई घर को ऐसे वचन उचारी
हाँ हैं माता प्रभुजी मेरे लाल तिहार कहाये
सपने में मोहे रात बतायों उदर तेरी हैं जाये
दरस करादे आस इक मोहे प्रान रहे अटकाये
वोती उमर वाल मैं पायों ताही खों उंगराये
सुनत टेर उस बढ़िया की सोतहि दोड़े उघारोी
टुमुक-ठुमुक 'खटिया पर आये दृद्धा लेटी रही जहाँ
महीना छः की आयु रही प्रभुजी लोला करत तहाँ
दीन के सुनर्ताह दीन वचन दीनदयाल को चैन कहाँ
नहा स्वरूप कौ भान करायों घट में उतरे तुरत वहाँ
का इच्छा अब मात तिहारी करिहों तुरत निवारी
पाकर दर्शन प्रभु जी तिहारे भई पूर्ण सब इच्छा
बैकुण्ठ धाम जाने की रही कोई नहीं अब इच्छा
बास करो प्रमुघट में मेरे शेष यही है एक इच्छा
प्राण पलेरू उड़ने लगें जब झलक दिखाना इक इच्छा
मुस्कान अधर संकेत करत है इच्छा पण महतारी
चमत्कार लख मात-पिना ने ममता का जाल बिछाया
आठ बरस की आयु में ही पुत्र का थिवाह रचाया
आनन्द मनावत मन में अपने बाँध लियो है नरनाहा
भरसक प्रयत्न करत हैं तत्पर बिध लेखा मेटन चाहा
छोर न पायो काहू वा कौ जो निराकार साकारो
रोक सके प्रभुजी की माया कौन है जग में जाया
विद्याघचर को विद्या पढ़ने काशी तुरन्त पठाया
मात-पिता का भादर करके गुरु को शीश झुकाया
जितना गुरु. पढ़ाते उनको आगे उससे पाया
देख अनोखी 'पाठक' बुद्धि गूरुजन कहत पुकारी
सहपाठी सब विस्मित रहते वेद मुखाय्र कराये
शेष समय में क्रमश: उनको योग अभ्यास सिखाये
सारे प्रभु सौं प्रेम करत हैं पढ़ने जो भी आये
दशा देख यदू शाला को गुरुजन पूछिन आये
राम कहाँ है धाम तिहारो सीखे विद्या सारी
हाथ जोड़ गुरुअजन के सन्मुख कहने ऐसे लागे
छोटा मुह है बात बड़ी गुरुजी तुम्हारे आगे
योग विद्या सम अन्य न कोई बुद्धि उत्तम जागे
जिसने लिया है सहारा इसका भाग्य उसी के जागे
व्ृष्ण राम शकर को उपसा ग्रन्थन नीक उचारी
योग में यदि है शक्ति इतनी शान्ति हृदय दर्शाओ
लके बहाना कोरा योग का साँची बात छिपाओ
इन बच्चों कौ बात निराली भेद हमें समझाओ
करके प्रभावत योग कला से अपना शिष्य बनाओ
देखें हुम भी महिमा योग को कैसी विद्या तुम्हारी
पुन अध्यापक के सरल बचन प्रश्न कहेउ तत्काल
शरण योग को जो गहत छुंटत हैं श्रमजाल
मींच के आँखे बेठो यट्टाँ लेओ तनहिं सम्भाल
मण करो त्रिलोको में दशन दीन दयाल
मन प्रसन्न मुख निकसत नाहों देखी सृष्टि सारी
सब प्रथम कंलाश पहुंच कर सुर-सरयू नहवाये
तीन लोक में घुमा फिरा कर दर्शन ब्रह्म करवाये
अज्ञन तिमिर को हरते ही हृदय कमल <स्क।ये
आज्ञा पाकर आँख जब खोली शकर सन्मुख पाये
हाथ जोड़ चरनन में गिर के बारम्बार पुकारो
या विधि कारज चलो वहाँ बरस पाँच निकारा
बुला सभी को एक दिवस ऐसे वचन उचारा
जान! मुझे है कारज अतिशय करते नेपाल पुकारा
अस्यास करो नित मागे पर छोड़ो साथ हमारा
भक््तन को प्रभु करत सुनाई पतितन लेत उभारी
हरोहरानन्द सन्मुख ठाढ़े चरनहिं नेत्रन ह डारे
कृप्णानन्द दुःखित मन माँहीं पुखकी ओर नहारे
संकेत करत है चुपको बानी चलिहैं संग तुम्हारे
तुम जिन जीवन हमरों निअधंक मरने ऐसी धारे
सजल नयन लखि लरकहिं दोऊ अनुमति दई उचारी धन्य
'चौदह बरस की रही अवस्था काशी नगरी छोडी
साथ अन्य भक्तों के चलत कृष्ण हरीहरा की जोडी
सबके हृदहिं उत्साह समायों मग आई टेढी
चलत राह तारत हैं अधमन होवे अन्धा कोढ़ी
आनन्दकन्द प्रसु सोहुत आगे छायो आनन्द भारी
चलते-चलते मार्ग में मानव भक्ष नदी आई
लौट न पायों जीवित वह पार नदी के जो जाई
एक आना में केवर रानी नौका तुरन्त लगाई
मझघार में नया जब पहुँची माँगी चवन्नी प्रति भाई
मुष्ट प्रहार कौन्द्र हरीहरा ने केवट वचन उचारी
पहुंच किनारे सब नौका छाँड़त माग॑ आपन जाई
सझि परी बिच जँगल माहीं रहे तहाँ ठहराई
क्रिपा-कर्म से निश्चित होकर भजन कोतंन गई
पा आदेश शयन सब कीन्हां अग्नि दई जराई
पार कर ना सीमा कोई रेखा एक निकारो
टपकीं बुदियाँ हरी हरानन्द ऊपर समझे वर्पा भारी
उठके देखत गज सुड़ेसे अपनी शुकहि आग ब्रझ्ारी
सोच विचार कियो न तनकहूँं कसके मुण्टा मारी
व्याकुल गज चिघारी लगावत भागों बनके मंझारी
तनिक बेर बहु गजनन लायो बदली लैन विचारी
शोर भई प्रभु पूछन लागे अग्नि कौन बुझाई
हरोहरानन्द सकेत करत हैं गजनन भीर मचाई
पा आदेश राख भर मुठ्ी जबहिं हरीहरा फहराई
लागी टौली गजकी भजने सुड़हि रहे उठाई
घमासान बन बौचहि जावत पग आगे धारी
चलते मग दो पहर बीत गये गाँव एक नियराये
कृष्णनत्द को रुपया देकर फलाहार मंगवाये
दुकानदार नहि देवत सौदा केवट रहयो सिखाये
यूम-घाम तहि आये बापिस बौतो घटना सुनाय
चुपकहि सुनकें हरी हरानन्द गमन कोन्ह बजारो
चलत है पाछे हरोहरामन्द जलस संदिर जाई
फल इत्यादि तहाँ भेंट चढ़ावत श्रद्धा रहे बताई
चढ़ मन्दिर फल सकल बटोरे मूरत सुन्डा चखाई
केवट सद्भ जलसहि देख हरीहरा चतुराई
घाये फलों को कुपके जलसौं सन्मुख लीलाधारी
सद्ध सबहि फलहार करत हैं विश्वाम घड़ी आई
था पाछे केवट तहिं भायो बिनती अस गाई
है भ्रूमि यथा आबर खूबर कठिनहि निद्रा आई
उपलब्ध महल में सारे साधन राजन कहां पठाई
हो आज्ञा चलू साथ तुम्हारे छोड़ें महल मझारी
आयूस पा सब चलते साथर्दि केवट राह टिखाये
हरीहरानन्द कहत हैं प्रभु सौं मन याकें कपटाये
थी आना बदले चवन्नी माँगी बनियन पाछ बहकाये
अवको बेर बह चाल सयानी मन मरो वतलाय्े
बत्दर नगरी प्रवेश कियो अरु पहुंचे महल मज्ारी
कनक थार ले पुष्प इत्यादि चरनन शीश झुकाये
सली-भाँति स्वागत कियो राजन सुन्दर सबहि दिखाये
कृपा कौन्ह मोहे पार दर्शन मोठ वचन सुनाये
जान परत तुम थके बहुर्ताह गृह विश्वाम बताये
करके व्यवस्था सबको न्यारो राजन अयो पछारो
हे राजन मैं चाकर तेरौ केवट विनय उचारो
उन बावा को चेला है या लगाई पिटाई हमारी
जादू कोन्हा कोटि जतन पर दीखत है बलधारी
महल में आयो मजा चखायदो राखो लाज हमारी
अध्रम नीच तूने नाम डुबायों राजन वचन उचारी
दरवार लगा जादूगर आये राजन आदेश सुनाई
शमबाम स आज महल में राखों कोर्तन भाई
जादू नगरी प्रतिद्ध यहाँ की दे दो परिचय भाई
सुधबुध भूल तन की जव वे करियों काय॑ चतुराई
सबके मन में लागो नीको आई हमारी बारी
पहुँच हरीहरा कोतन माहीं चिमटा कर धारी
हरनाम भजन को झड़ो लगाई आनन्द छायो भारी
लख नोको अवसर जादूगर ने तुरन्त ही जादू पारी
बेहोश भये जव हरीहरानन्द वृक्ष समीपह्टि डारी
बहुबेर सई भाई न आयो धा।ये कृष्णनन्द बिचारी
घुरि पीठ पे मूछित भाई को विश्वाम गृह लायो
उल्टा सीधा करके उसको जादू क्षण में भगायो
हरीहरा को चेन नहि नैकहूँ जाकर सबहि पछारयो
उन रन बिताई बत्दर राजा जादू एक न चलो
हाहाकार मची महिलन बिच देते दुहदाई जटाधारी
हाथ जोड़ नृप करत याचना प्रश्न सन्द्ख आयो
करके आत्म समपेंग उसने चरतन शीश रखायो
क्षमा करो प्रभु अपराध हमारे हमने तुमहिं सत्तायों
हमका जानी नर तन धारे ईश महल में आयो
शरण में ले लो ज्ञान उपजा दो हे मादक नाशन ड्ारो
कृपासिन्धु की कृपा जो जागी राजहि हृदय लगाया
कर अपराध क्षमा सब उसके सत्गुण दीन्ह जगाया
एक सप्ताह रमे प्रभु वां पे लुटा रहे थे दाया
काया कल्प करि नगरी सारी योग सुधा बस्सायं
चेंर लगी नई्ि सर्व पतितन को प्रभु ने लियो उभारी
भूल कभी ना तुमको भगवन जबलों घट में प्रान
हृदय कमल की कली खिला दो देखा क्रपा निधान
मैं और मेरी जनता सारी है मुख ओर अज्ञान
जित जावें उत्त ध्याव तुमको महिमा गावें महान
एवमस्तु प्रमु आशिस दी नहीं नगरी भडई सुखारी
कर सन्तोष प्रभु ने सबको प्रस्थान वहाँ से कोन्हा
चलते-चलते मार्ग में एक ऋषि ने आ चीन्हा
चरण कमल में शोश झुकायो सफल जन्म को कोन््ह
बोल्यो प्रभुजी ! भाग्य बड़ मोरे, दर्शन तुम दोन््हा
आगे मोड राह दिखा दौ, योगीइवर बलधारी
विस्मित होकर प्रसुजी पुछत हे ऋषी महाराज
मैं बालक मेरी नन्ही उमरिया आप योगी महाराज
ज्ञान उपदेश न दोन््हों नेकहूं सन्मान दियो योगिराज
याकौ भेद समझ न आव स्पष्ट करो महाराज
सजल नयन भय प्रेम उर बाढ़यो ऋषिने शब्द उचारो
वरस पाँच सौ बीत चुके जोवत बाट निंहारों
पिछले जन्म में वचन जो दीन्हों पूरन करो विचारी
प्रभ चरण को महिमा गाऊँ सकल चराचर हारी
जिनके दशं को महात्मा तरसत सो मानस देह धारी
भेद तुम्हारो कोऊ न पायो या संसार मझारी
कर कृताथ मुनि को प्रभुजी ने प्रस्थान केलाश कीन्हों
साथ में आय भवत जनम को वापिस घर को कीन्देन
कृष्णानन्द और हरी हरा को ध्यानास्थ पठारहि कीन्ड्रा
भूख न प्यास सतावे नेकह आशिस प्र मुजी दी नह
उचित व्यवस्था करके सबकी इकर्लेहि गये जटाधारी
चलत माग॑ जब साँझहि आई झाडी डिंग ठंहराये
क़िया-कम से निवृत होकर आई नींद सुमराये
रात्रि ग्यारह बजन को आटो साधू रूप बुलाये
उठों त्रिप्र काहें सोवत यहाँ पँ लेने हम हैं आये
हाथ त्रिशल धारे चम दुशाला चलते आगे त्रिपुरारी
महादेव से सटा हुआ प्रभु आसन जो पाया
जाकर बंठे नियुक्त जगह पर सोहत शंकर साया
ध्यान में बंठे ऋषियों को विस्मय सन में छाया
कैलाशपत्ति के समीपहिं बेठो देखी बालक काया
छोड़ी आसन शंका मिटाने ढिंग आये त्रिपुरारी
समाधि लगाये सोहत शंकर सार्थाह बालक एक देखो
एक दूसरी ओर हैं जोवत वचन न सुख से निकस्यों
कौन्ह विचार निष्कर्ष न पायो संसय अरु बढ़ायों
कौन है तनधारी या जग में साहस इतनो पायों
हाथ जोड़ लागे स्तुति गाने शंँका मेटो हमारी
खुली समाधि ऋषर्हाहि बैठारे भोले वचन उचारो
कसे कष्ट महात्मन कोन्हों करो स्पष्ट बिचारी
होवे समस्या तुम्हरे डिंग जो बालक करे निवारी
सन्तोष मिले नह्टि यद्यपि वासें करिहों पूर्ति तिहारी
कीन्ह परा में मुनिजन आपस ऐसे वचन उचारी
कारण है का साधुजन, दूढत एकास्त बासा
ईश दरस संसारी पावत राखत अगणित आसा
तप बिन मोक्ष मिलो नहि काहू साधन एक निवासा
स्व॒अध्यन सत्संग की महिमा, सत्युन करत विकासा
ब्रह्म रूप हैं बालक दीखत शंकर लीला न्यारी
सिशब्द््टि देखा जब ऋषियन को शम्भु लगे मुस्काई
अजई होते मन में शंका अन्य प्रश्न चित्तलाई
तेहि पश्चात रहे कछु शेषहि शास्त्राथं करो समुदाई
जिन समझो याहे कोरौ बालक जानो रूप हमाई
करहु क्षमा प्रभु कारन क्तायदो दूजौ रूप घारी
संसार मज्ारी प्राणी बहुधा दीखन हैं दुखियारे
कर्मह्दीन माया में लिफ्ट पावत संकट न्यारे
लख्यों नहिं कोऊ पथद्शंक ढूँ ढ़यो साँझ सकारे
सोच विचार के स्वयं ही दमने दूजौ रूप है धार
समस्त महात्मन ऋषियों ने है आरती उतारी
महाप्रभ श्री रामलाल को शंकर रूप जतायों
देवागण ने पुष्प बरसाये मन में हुष॑ मनायों
उत्तर कलाश मदान में आये वमर्कार दिखलायों
माग में जो पापी आये जीवन सफल बनायों
गोरखपुर के वन में आकर हरते विपता भारी
भाई-बहिन अरु पिता साथ में भ्रमण रहे वन में
सन्मुख प्रभु के जब आये लज्जित हुए मन में
कारण है का छाई उदासी प्रभु पूछी क्षण में
जान परत है भाव न नीके धारे तुम उर में
भेद बताऊ साधु जानकर मेटों पीड़ा हमारी
हाथ जोड़कर बूढ़ा कहता रामरती कन्या मेरी
दूप्कम बताने को इसके उठती न जिल्ना है मेरी
दिखाने सु ह के योग्य रहा न निन्दा भई घनेरी
जोवन ढदुलेभ जान परत हैं दुर्गत भई मेरी
करों कहा कछु सुझ न आवत कसी माया तिहारी
भले बुरे वहु विधि समझायो उल्टी परत सिखाई
टोके निराश पुत्र ने मेरे ऐसी सुझ दिलाई
चलकें आज जजड़ल में कहीं इसकी करें सफाई
इति श्री थी रामरती की इतने डिं में तुम आई
बनके ईश तुम आये मेरे सुनलो टेर हमारी
घीरज राखों मनमें अपने घड़ी नीक है आई
दम भी देखें समझा करके कसी रामरती भाई
छोड़ के इसको मेरे सन्मुख विश्वाम करो जाई
प्रातह्ि भाकर ले तुम जाना प्रसन्न हृदय आई
पिता पुत्र हर्षत हैं मन में आशा दीन्ही जटाधारी
पिता पुत्र निकट एक वृक्ष के दोनों रहे लुकाये
दखत वहाँ से रामरती को प्रभुजी बचन सुनाये
तज के शंका सारी मन को साँची देओ बताये
है का कारण पिता तुम्हारे मारन जंगल लाये
निमंल हृदय से यदि समझाओ करिद्दों सहाय तिहारी
हे जटाधारी तुम हो हितकारी बाबा कृपा निधान
सठ न बोल तुम्हरे आगे ऐसी घट में आन
जात रही मैं कार्य बजारे मार्ग मिलो चौहान
पाई कुसंगत ग्रसित भई ता मैं करती मदिर पान
सेत्रिन क्षेत्र बढ़या याहि विधि आानन्दपायों भारी
चाहूँ रहिन विमुख बहुतेरी शक्ति परे हमारी
खबर परी जब मात-पिता को पायों दुःख भारी
अवगुण की हूँ खान बनी करते निन्दा संसारी
लागे मीक न मोहे जग में रुपट भई अब महतारी
नासमझी में गलती हुई गई राखो लाज हमारी
रामरती की सुन कर बातें लगे प्र तु सुम्कान
बाले देवी भोली है तू क्यों होती है हैरान
आँख मीच कर वृक्षाहि नीचे बंठो कहना मान
पावे आनन्द उच्च कोटि का हो जावे कल्यान
प्रभू चरणों में शीश झुकायो रज मस्तक धारी
हाथ जोड़ कर प्रा्ताहि बूढ़ा आकर विनती कीनी
आयों हूँ महाराज दरस हित आज्ञा जस दीनी
दीख परत महिं कन्या मोरी सुपुदं आप कीनी
भाज गई का देके बहाना या अनुमति दीनी
करो दूर बाबा मनकी चिन्ता पैयाँ परू तिहारी
रामरती तेरी कन्या भोली है आज्ञा कारी
मान के बात हमारी रखो बैठो झारी अगारी
लेकर जाओ सहपष उसे तुम अधे लेन बिचारी
तन स्पशे न होवे तनकह करना शब्द उचारी
रामरती ठिग पहुंच के बूढ़ा ऊँच हि कंठ पुकारी
कान सपोप बहु बेर बुलायो उत्तर ना पायों
कारन है का बोलत नाहीं मन अचरज छायो
ऊपर नौचे साँस लत हैं सिद्धासम अपनायों
मिश्र त भाव उठत जब जाने दूढ़ा पाछे बायो
हर के चिन्ता उ भार लियो मनु जादू अनोखौ पारी
जादू कीन्हां न कोई टौना न चिन्ता की बात
ध्यान अवस्था में अब बेठोी रामरती है तात
आँख खुली तुम जानो इसको बहुत दिनन पश्चात
परमानन्द को भान करत है कह्टीं-नहीं या जात
रामरती कुल तारन होगी लाभ उठावें ससारी
करेंगा इसकी जो भी सेवा श्रद्धा से आते
राखे सफाई चहूँ ओर वी इच्छा फल पावे
सुन आशीर्वाद प्रभु जी का मन बुढढा हर्षावि
धरकें रूप विधाता आयों कलक ते मोह बचावे
रामरती को दुद्धी दीन्हीं देखौ आंखन फारी
आस-पास फीली खबर सकारी देखन आये नर-नारी
घणा के बदले प्रेम समायों जौई रामरती प्यारी
लागो मेला भरने भर तो गोरख बनके मझारी
परुम-धाम हरि कीतंन होबत मंगल छायों भारी
लागी इच्चा पुरन सबकी भीर लगाई संसारी
या विधि चालत सत्सज्ध वहाँ महिना दस नियराये
देशाटन कर उत प्रभुजी प्रय।ग नहाने आये
बैठ रेल में यात्रा करते निकट गोरखपुर आये
पार दर्शन रामरती को बेठो ध्यान लगाये
आँख खोल देखो भक्तन सन्मुख ऐसे वचन उचारी
तन पे लंगोटी सिर पे जटायें सोहत हैं प्रतिपाल
तोसरि रेल डिब्बा में बिराजे दौड़ो स्टेशन तत्काल
शीश झुका कर बिनती करना नियराई इक साल
दरब्र को तेरे भोले बाबा है रामरती बेहाल
दर्शन पारो प्यास बुझा दो हे निराकार साकारी
उदय भाग्य लख भक्त जनन ने स्टेशन दौड़ लगाई
रुकतहि गाड़ी नियुक्त डिब्बे में परे दीनानाथ दिखाई
हार पुष्प सब भपंण कीन्हें चरनन शीश झकाई
हाथ जोड़ दौऊ वाणी मृदुल विनती सरल सुनाई
जावट बाट भई बेर घनेरी करो कृतार्थ जटाधारी
युनौ टेर भक्त वत्सल तुरन्तष्ि भक्तन टेक निभाये
आवत देखो रामरती जब चरन परी फैलाये
पग में खढ़ाऊ शीश जटायें मुखड़ा तेज जताये
कर में कमन्डल जनेऊ धारें देखत मन हर्पाये
जो जस ठाझ़े तिततें गावें जय होने तुम्हारी
कसी धभीर लगो यहाँ देवी ऊजर भूमि मंझार
महल इमारत बने हैं दोखत छाई अजब बहार
शिष्या शिष्य अगणित कर लीने भरो मिठाई बाजार
बाल वृद्ध सारे हैं करते रामरती की पुकार
मैं ना जाँतू अजहूँ इनको जाँनू तोहि निराकारी
लोग लुगाइन पास जो बंठे प्रभुह्हति भेद बताई
धन सन्तान भई इच्छा पूर्ण तिन इनकों बनवाई
एक बार इत भुलहि आये सारे काम बनाई
थूमघाम कौ कारण वन में है केवल प्रभुताई
रामरती रहो आँखे मीचे बोली अ।ज बिचारी
नीक समय लख रामरती ने गाथा मनको गाई
कीन्ड़ क्रपा मोहि दर्शन दीने जीवन सरस बनाई
मो पापिन सम तृमने उबारे शान्ति हृदय दर्शायी
इन आँखिन संसार न भावे माया लेओ हटाई
रोम-रोम होवे वास तिहारो स्वर गू जे भारी
महाप्रभु श्री रामलाल की महिमा अकथ कहाई
रामरती व्यभचारिन को क्षण में सिद्ध बनाई
आशिस दीन्हा भोलेनाथ ने मन एकाग्र कराई
जन्म-मरन को चक्र हटायो योग ध्वजा फहराई
पुष्प बुष्टि जनता ने कीन्हों मंगल गीत उचारी
मेढ़ मल्लाह को सपने में प्रभुजी दरस दिखायों
खुट खड़ाऊँ धारे सिर पे जटायें मन में बहु हर्षायो
भोर भई झले प्रतिमा सन्मुख मन संकल्प समायो
बेऊँ न नौका आजहूँं जबलों सपना साँच जतायों
मेढ़ खड़ा इक पग से नावहिं जोवत बाट जटाधारी
अखिल ब्रह्म नायक प्रभुजी घट-घट के हैं वासी न
रातों रात प्रयाग में पहुँचे छोड़ के नगरी काशी
प्रात: उठ भक्तों को बुला कहने लागे गुणरासी
स्नान करें त्रिवेणी चलकर सूरज सागे मकर रासी
सब्र पर्वों में पव बड़ा हे महिमा इसको भारी
जटा से जिनकी गंगा बहुतीं गंगा नहाने जाते हैं
जग के तारन हार प्रभुजी तरने को स्वयं जाते हैं
आगे -आंगे प्रभुजी हैं सोइत पीछे भक्त जन आते हैं
लगा समझने प्रत्येक केवट नौका मेरी आते हैं
विस्मित होते मन में अपने देखो जात अगारी
चलते माप नौका पुरानी सन्मुख पड़ी दिखाई
पहुंचे प्रभूजी तुरन्त उसी में देर तनिक न लगाई
ऋषिजन सारे चकित हुये प्रभुजी कहाँ समा
छोड़ के सुन्दर-पुन्दर नौका या मन में भाई
मनन कियो कछठु समझ न आवे लौला है न्यारी
देख के मेढ़_ को मौन खड़ा बोले प्रभुजी थे भाई
बेर भई मोहि ढूँढ़त तोकों काहे नेत्र मिचाई
आँखे खोलीं जब केवट ने बाबा सन्पुख पाई
प्यास बुझा नेत्रों की अपने चरनन शीश झकाई
अश्रू घार से चरन पंखारत मन में कहत पुकारी
पा संकेत प्रभुजी का नौका धाये सब भाई
देखी नौका आगें जावत बोले जय गंगा माई
छायो अचरज यात्रिन मझारी कहते आपस में भाई
बिन पतवार के नौका चलती केवट व्यस्त प्रभु सेबकाई
जन्म-जन्म के पुन्य सराहृत दर्शन पाये जटाधारी
बालकृष्ण नाम एक हैं महात्मा प्रभजो संग आई
मध्य त्रिवेंणी प्रभु डुब कौ लगाई पाछे शिष्यगण भाई
स्नान से होकर निवत्त प्रभुजी गंगा तट को जाई
केवट को उतराई न दीन्हीं बालकृष्ण शंका आई
अस विचार धारण कर ठहरे केवट नौका मजझारी
मत्लाह बताओ मजूरी अपनी महात्मन वचन उचारी
जान परत तुम कछु न पायो इच्छा देन हमारी
सुन केवट अनसुनी है देखत ठाड़यों निशब्द किनारी
बालकृष्ण दस रुपया निकारत केवट कर धारी
होइजा. कोढ़ी सथघुये कहीं का मेढ़ू शब्द उचारी
पहुँचा सबको नियुक्त जगह वापिस मेढ़ जब आया
इताहि लादत उत है उततारह क्रमश: ग्राहक था पाया
चकित रहे केवट साथी जन देख मेढ के काया
साँझ भई जेव मे भारी फलस्वरूप था धन वाया
मन प्रसन्न हो घर को जाता बारम्बार पुकारी
छूकर चरन पिता के उसने ऐसे बचन सुनाया
बड़े भाग्य भये उदय हमारे नौका भोले आया
सहिमा उसकी समझद््ूँन;आती थे घिकाधघिक है धन पाया
मन-मौहन है छवि निराली हृदय सोहि समाया
लपने आप थी नौका चलती जवबहि पय धारो
होत शोर मेढ़ ने आज प्रभुहहह्टि सुमरो भाई
श्रसुका उसका हो गया चालू शंकर दर्शन पाई
राग ढश भये दूरह्ि तबसें मन स्थिरता आइ
पुष्प समान शरीर लखे हलको हृदहि शान्ति समाई
आनंद आधोन हो नाचन लागा देखो सन्मुख जटाधा री
नियम बध्य हो प्रार्ताह मेढ़ नौका अपनी जाता
फलस्वरूप जो मजदूरी मिलती मन संतोष मनाता
प्रभु चरणों को हुदहि बिठावत फूला नहीं समाता
कम करे निष्काम भाव से रंग आदशं झलकाता
जित जाये उत्त तेज निहारे कुपा अनौखी पारी
फूटा देख के कोढ़ देह में बालकृष्ण जी चकराये
मल्लाह वचन होगे का साचि प्रभु समीपहिं आये
दस्म मान की झलक दिखाते ऐसे वचन सुनाये
धन्य भाग्य हमारे प्रभुजी संग तुम्हारे जाये
दण्ड मिलो अपराध न कीनौ कैसी महिमा तिहारी
कर्मों का फल प्रत्येक पाये होवे सूखे ज्ञानी
इसके आगे बालकृष्ण जी देवन हार मानी
कम क्षत्रसमझ पृथ्वी को गीता ठीक बखानी
स्थान न दूजा इसमें सुन्दर कमें तुला ज्ञानी
जप-तप साधन आश्रय लेके मानव जन्म सुधारी
जो आवागमन से चाहो छूटना मल्लाह श्राप भुगतायों
शरीर तो ठहरा नाशवान फिर काहे स्नेह बढ़ाओ
कर साधन संयम भली-भाँति शान्ति हृदय लाओ
जिसमें समझो हित तुम अपना माग॑ वहीं अपनाओ
जिन श्रद्धा के साधन असफल गावत वेद उचारो
आनन्द कन्द देशाटन करते पहुचे आन सवाँई
सन् उन्नीस सौ ग्यारह में गुफा सिद्ध दर्शायी
रज की अद्मुत शक्ति यहाँ की चाटन पीड़ा जाई
कुइया कौ जल लागे खारों पाचन शर्क्ति बढ़ाई
जला आगरा ग्राम पोस्ट सवाई प्रभु स्मृति न्यारी
भाँति-भाँति के दुःखिया रोगी नितत दर्शन पावें
मन मोहक है छबि प्रभुजी की चरनन शीश झुकारव
कष्ट मिटें तनके जब सारे मन में हुष मनाव
आस-पास छायो अचरज भारी शड्धुा मेटत आयें
बोल न निकसे रूप निहारें हरते पीड़ा सारी
खबर जो फैली चारों ओरहिं दर्शक आयें भारी
भीड़ लगी सोचत हैं प्रत्येक आबे बारि हमारी
है दौन बन्धु दया के सागर कारज अन्य बिसारी
बठत भोर से साँझ तन्नक टेरें सुनते न्यारी
देखि असुविधा यात्रिन की युक्ति एक निकारी
प्रात: काल होने से पहले ताल एक दशया
भर दी शक्ति उसमें ऐसी होवे निर्मल काया
प्रथम करे स्नान ताल पर पाछे दर्शन पाया
अद्भुत युक्ति प्रभुजी निकारी दर्शक समय बचाया
देर लगत नहि यात्री हषंत दाया करते भारी
लागो मेला भरन ताल पे लोग रहे बिस्माई
गठिया बाय शरीर की पौड़ा स्नान करत जाई
साध्य असाध्य रोगों को साधन 'जीवन तत्व' बताई
बाबुसिह हषंत मन माहीं जागे भाग्य सर्वाँई
हरत हैं पल में सारी चिन्ता यश गाते संसारो
योग अभ्याफ का पाठ पढ़ाते चंचलता सब जावे
जप तप साधन सरस बताते मन स्थिरता आते
पल में मन एकाग्र कराते बालक वृर्द्धाहि भावे
जो सरल हृदय अनुराग आते रज़ अनोखा पावे
नर-नारी योग पात्र बनाये लीला है न्यारी
साँस सकारे प्रभु दर्शन देते बिराजत गुफा मज्नारी
व्यक्तिगत हैं सब से मिलते छायो आनन्द भारी
बादूसिह कृषक ने एक दिन बिनती सरल उचारी
राह लखाय दो कछु न जानत आयो शरण तुम्हारी
दौनबन्धु ने दौन जान कर तुरतहि टेक निवारी
भक्त लोग थे बेठे एक दिन प्रभुजी बात जनाई
कारज मोहि अगृतसर माँही जाना अतिसय भाई
नहीं प्रतुजी तुम जिन जाओ तुम्हीं एक सहाई
हठ करिहँ हम ताला लगावें गुफा ऊपर जाई
प्रभु लीला कोऊ समझ न पायो भक्तन कुन्डी मारी
प्रात: भई आकाश मारग॑ से जाते पड़े दिखाई
भर-भर स्वर सुनते ही सुखिया लागौ मन में डराई
व्याकुल लख प्रभु सन्मुख आये सुखिया लियो चिनाई
आप प्रभुजी विस्मय बोलो नेत्र लगे सुस्काई
युफा पै जाकर कहना सबसे काहे समय बिगारी
सुखिया बात विदवास न भायो देखी गुफा जाई
सिवा कमण्डल अन्य नहि कोऊ मानत दुःख ताई
समम-समय पर होके इक्ट्ट करते चर्चा भाई
आज नहीं तो कल प्रभुजी आयेंगे यहाँ भाई
कटत रहे प्रभ बोलो सुखिया अइहों युग के पछारी
वाइसिट के भाई ज्येप्ठ रुष्ट रहें भारी
ठाकुर नाम डुबायों या ने प्रभ-प्रभु पुकारी
ऊँच नीच पल पल में बोलें देवत हैं गारी
लाग्यो नौीक न बावूसिह को घेरी चिन्ता भारी
असहाय भई गुरु निन्दा जबट्टीं गले अफीम उतारी
भोतर गाँव खबर जब फेली बाबूसिह अफीम खाई
आकर खेत से ज्येष्ठ भाई ने वचन कट बरसाई
जब देखो तब प्रभु्हि पुकारे काम न दूजौ सुहाई
गये कहाँ अब प्रभुजी तिहारे लेवें जान बचाई
विष अफीम निज तन भुगताई प्रगट भये जटाधारी
हृदय लगा पूछित हैं प्रसुजी काहे शोक मनाई
आँख खोल कर बाबूसिह ने चरनन शीश झुकाई
न घोड़ा सवारी साधन एकहू कैसे प्रमुजी आई
आश्चय ग्रसित भये पास पड़ोसी मृतक लियो जिलाई
हाथ जोड़ सब कहने लागे जय होत्रे तुम्हारी
साथ चल यदि होवे आज्ञा मन मेरो घबराई
नहीं-नहीं तुम बादसिह यहाँ कार्य करो चितलाई
सदा साथ मुझे अपने स्रमझो राखो सबसे रसाई
सत्सज् चलत अमृतसर माँही कारज मोहे भाई
साक्षी ग्राम सवाई नर-नारी पारी जान जटाधारी
करके स्वस्थ बाइूसिह को प्रभु किया प्रस्थान
पर में पहुँचे अमृतसर आरम्भ किय। व्याख्यान
का कारण प्रभु चुपको साधौ ख्रोता पूछे क़ृपानिधान
शंका निवारण करके मेरी मेटो शोक महान
एक लरिका विष पान कियो ताकों गयो उभारी
थहि विधि अमृतसर के भौतर सत्संग चलौ भारी
नर-नारी हैं न उठावत ईर्ष्या पाखंडो धारी
ग्राहक ढिंग नहि आवे एकह आमद गमिरगई भारी
सोच विचार के सबने आपस युक्ति एक निकारी
हजार रुपये कौ लालच देके भेरों जाय पुकारों
ये मेरों सिद्धी वाले ज्ञानी नजराना लो भाई
बाबा एक ने आकर यहाँ पफै आमद हमरी घटाई
स्वयं को कहलावे है प्रभुजी नगरी सारी बौराई
तिगनोी द्रव्य और हम देहैं करो हमार सहाई
चर बठे है लक्ष्मी भेजी ज्ञानी ह्षित भारी
चलत रहयों सत्संग प्रथु कौ आयो भैरों ज्ञानी
शिष्टाचार नहिं जानत नेकहूँ बोल्यो कट बानी
का ऊपर हो प्रभुजी कहावत बोलो बानो अभिमानी
चमत्कार हौ ढिंग जो तुम्हारे देखु मैं ज्ञानी
ब्राजों महात्मन राखो धौरज प्रभुजी वाक्य उचारी
सम्मान मिलो ज्यों भैरों ज्ञानी अनुचिन शब्द बड़ाये
सह न सके गोपालानन्दजी बालिका एक बुलाये
मीठयों बोल है काहे बिसारौ मानस देह धाये
आठ बरस की बालिका यह संशय तोर मिटाये
दर लगी नहीं दुर्गा सन्मुख रूप बालिका धारी
हेनाथों के नाथ प्रभुजी मेरे कारज देओ बताई
को जन्मों संसार के भीतर तुमसों बैर जनाई
संकेत करो पकरहि मैं लाऊँ चरनन शीश चढ़ाई
बेर लगी नहिं भेरों आकर प्रभुहहि शीश झुकाई
लख इष्ट को अपने भेरों ज्ञानी प्रभु की दुद्दाई पुकारो
देवी मेरों दुई जनन कौं प्रभुजी लियो बिंठाई
सकेत कियो गोपालानन्द को ऐसे वचन सुनाई
बहु व्याकुल है भेरों ज्ञानी आपन क्षमा सुहाई
छोड़ अमृतसर जाय अन्त या इष्ट रहे सहाई
करि प्रणाम मेरों ज्ञानी ने अपनी शूल सुधारों
बारह बरघ देशाटन करके अन्तर्यामी जब आये
घोती कुरता पगड़ी सोहत रूप नयो धाये
किन बाबा कौ आश्रम हैं या हमें कहाँ ठहराये
करत हैं बातें निठवहि भोली मनु अनजाने आये
साँझ भई एक भक्त ने चीन्यो रूप प्रथम धारी
इसी बीच में जमींदार ने साल दियो पूरवाई
समय चक्र ने आन दबोचा पकरत खटिया लर काई
कद दिनहहीं तीनन लरकन कौं लियो मौत्त दबाई
खबर मिली प्रभुजी हैं आये दौड़यो आयो शरनाई
सिसकी दे दे रोवत भारी राखो लाज हमारी
का अपराध बनयो प्रभु मोसों दण्ड मिलो भारी
अल्प काल में तीनहूं लरिका जाय परलोक सिधारी
मोरे मन भासत अब ऐसौ भई भूल हमारी
कुट्म्ब नाम हित याहि बचायलो चाहूँं दाया तिहारी
एवमअस्तु कह तब प्रभजी ने दीन्हा उत्तर अधिकारी
दिनन बा प्रभ रहे स्वाद संकट अगणित तारे
चहूँ दिशि कीर्ति पवन फंलाईं नारे जय कारे
ाँड़ि अहं शरभहि जो आयो भौतर नेत्र उधारे
हर विपदा क्षण में ताको बार एक पुकारे
है पतित पावन भ्रूमि दर्शायी सिद्ध गुफा प्यारो
दिवस एक भयो देवता भाये बिनती अस गाये
प्रभु दर्शन के भिक्षुक सारे काहे हमें श्बसराये
ब्रह्मपुरी जब पतौ न पायो कैलाश मध्य छनवाये
घड़ी नीक अब जान परत छै दरस तिहारे पाये
करके कृपा प्रभु हर्माह उबारो हे निराकार साकारी
ध्यान मुझे है वचन दिया था चलिहों साथ तिहारे
पतित उद्घारन कार्य यहाँ का सौंपू चन्द्रमोहन सहारे
घोग्य वही दीखत हैं मोहे निष्ठा अनोखी धारे
देशाटन को जबही जाऊँ कारज वही संभारे
श्री चन्द्रमोहन को ढडिंग बेठाकर दीन्हीं शक्ति सारी
प्रभ लीला है अकथ अनादि वर्णन नहिं जाई
जीवन सफल हुआ है निर्चय जो महिमा गाई
दास कामता बुद्धि रहित है नह प्रभु सेवकाई
एक बेर दर्शन के पारत दौनों या गाई
कृपा दृष्टि बरसाते सब पर बार-बार बलिहारो
॥। इति ॥।