तर्ज - मैं ससुराल न जाऊंगी
गुरुवर का संदेशा तुझे आयेगा मन में श्रद्धा का दीप जलाना
बड़ा कठिन है नर तन पाना उससे भी दुर्लभ है सद्गुरु मिलना बिन गुरु सद्गति ना है होती उमर है कि दिन प्रति दिन घटती मीरा सी लगन है लगाना मन में श्रद्धा का दीप जलाना
शबरी जैसी है भक्ति जगाना अपने राम को मन में बिठाना जो भी मिले उसका भोग लगाना प्रेम भाव से उनको खिलाना सब कुछ उनको समर्पित करना मन में श्रद्धा का दीप जलाना
प्रहलाद से कष्ट तुझे सहनें पड़ेंगे मीरा से दुःख तुझे झेलने होंगे परी क्षा घड़ी से निकलना ही होगा कलियुग का माया जाल विचल्त करेगा पर उनसे न तू घबड़ाना मन में श्रद्धा का दीप जलाना
5 सार्च 994, ड््न्दौ