तर्ज - चल उड़जा रे पंछी
चल चल रे ओ मनवा कि अब तो प्रभु से ध्यान लगा
लाख चौरासी के चक्कर में भटक भटक कर आया पुण्य कमाई करी पूर्व में इस भव नर तन पाया
पाप मैल को धोकर अपनी कर कंचन सी काया प्रभु वाणी का पीकर अमृत जीवन सफल बनाया
धन दौलत ये महल अटारी कछू साथ न जाये तेरा मेरा करते करते यों ही जनम गवाये लिया दिया तेरे साथ चलेगा बाकी सब रह जाये
मुदूठी बाँध के आया जग में हाथ पसारे जाना
दानशियल तप भावना से ही मिटे कर्म का फेरा हो जाये उभार जगत से हो घट प्रभू वसेरा
ज्ञान के दीपक से हट जाये मिध्या रुपी अंधेरा पैर पकड़ले गुरुवर के तू भव सागर तर जाना
ग्वालियर, दि. वर्ष 296 7