तर्ज - हम रहे नहप
हम रहे न हम मिट गए भरम देके सब हमें क्यों चले गए
हम समझते है आज भी हो तुम हर समय सदा हर जगह हो तुम फिर भी चाह है तेरे दर्श की गिर के ना उठे पदकमल से हम
हम संभल गए मिटने ना दिया संकटों से प्रभू हम उभर गए खेल खेल में क्या दिखा गए माया जाल से हम निकल गए
नजरें कम हुई कान भी न वो दम शरीर का अब न साथ में ह क्या अभी भी कुछ पूर्व बाकी है काट इनको प्रभु लो समीप में
भब न चाह है सब तो पा लिया हर खुशी और गम धूप छांव में जी तन संभल गया मन भी रम गया अब तो लो प्रभू अपनी बाहों में
दि. 29 जुलाई 2002